Friday, November 13, 2009

tum bhi aao...khelenge..

3 comments:

  1. Bal man ki bhut hi payri abhivekti photo m dhik rehi h.bina khel k bachpan adhura h.Achhye chitro k liye Aap ko dhanyabad.
    NARESH MEHAN

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  2. ग़जल की शक्ल में एक रचना
    तकाज़ा वक्त का / दीनदयाल शर्मा

    चेहरे पर ये झुर्रियां कब आ गई,
    देखते ही देखते बचपन खा गई.

    वक्त बेवक्त हम निहारते हैं आईना,
    सूरत पर कैसी ये मुर्दनी छा गई.

    तकाज़ा वक्त का या ख़फ़ा है आईना.
    सच की आदत इसकी अब भी ना गई.

    है कहाँ हकीम करें इलाज इनका,
    पर ढूँढ़ें किस जहाँ क्या जमीं खा गई.

    बरसती खुशियाँ सुहाती बौछार,
    मुझको तो "दीद" मेरी कलम भा गई.

    अध्यक्ष, राजस्थान साहित्य परिषद्,
    हनुमानगढ़ जं. - 335512
    http://deendayalsharma.blogspot.com
    सृजन : 21 March , 2010, Time : 7:25 AM

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  3. दीनदयाल शर्मा की रचनाएँ

    अब तो जाग
    कौन बुझाए खुद के भीतर , रहो जलाते आग,
    ऐसे नहीं मिटा पायेगा, कोई आपका दाग.

    मन की बातें कभी न करते, भीतर रखते नाग,
    कैसे बतियाएं हम तुमसे, करते भागमभाग.

    कहे चोर को चोरी कर ले, मालिक को कह जाग,
    इज्जत सबकी एक सी होती, रहने दो सिर पाग.

    धूम मचाले रंग लगा ले, आया है अब फाग,
    बेसुर की तूं बात छोड़ दे, गा ले मीठा राग.

    मन के अंधियारे को मेटो , क्यों बन बैठे काग,
    कब तक सोये रहोगे साथी, उठ रे अब तो जाग.

    सपने
    सपने तो लेते हैं हम सब, ऊंची रखते आस,
    मिले सफलता उसको, जिसके मन में हो विश्वास.

    बेमतलब की बात करें हम, अधकचरा है ज्ञान,
    अपनी कमजोरी पर आखिर, क्यों नहीं देते ध्यान.
    दोषी खुद है मंढे और पर, किसको आए रास.

    आगे बढ़ता देख न पाए, भीतर उठती आग.
    कहें चोर को चोरी कर तू, मालिक को कहें जाग,
    कैसे हो कल्याण हमारा, चाहें और का नाश.

    अच्छा कभी न सोचेंगे हम, भाए न अच्छी बात,
    ऊंची - ऊंची फेंकने वालों, के हम रहते साथ,
    लाखों की चाहत है अपनी, पाई नहीं है पास.

    आलस है हम सबका दुश्मन, इसको ना छोड़ेंगे,
    सरल मार्ग अपनाएं सारे, खुद को ना मोड़ेंगे,
    अंधकूप में भटकेंगे तो कैसे मिले उजास..

    समय
    गलत काम में गुस्सा आता, धीरज क्यों नहीं धरता मैं,
    उम्मीदें पालूं दूजों से, खुद करने से डरता मैं,

    आलस बहुत बुरी चीज है, किसको कैसे बतलाऊँ,
    आलस की नदिया में बैठा, अपना गागर भरता मैं,

    समय की कीमत कब समझूंगा, समय निकल जाएगा तब,
    समय सफलता कैसे देगा, कोशिश कभी न करता मैं,

    सब कुछ जान लिया है मैंने, कुछ भी नही रहा बाकी,
    मुझको कौन सिखा सकता है, अहंकार में मरता मैं,

    समय नहीं कुछ कहने का अब, खुद कर लूँ तो अच्छा है,
    सीख शरीरां उपजे सारी , बाहर क्यों विचरता मैं,

    मानद साहित्य संपादक, टाबर टोली, हनुमानगढ़ जं.
    राजस्थान. 09414514666, 9509542303

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